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ॐ
बाल समय रवि भक्षी लियो तब,
तीनहुं लोक भयो अंधियारों I
ताहि सों त्रास भयो जग को,
यह संकट काहु सों जात न टारो ||
देवन आनि करी बिनती तब,
छाड़ी दियो रवि कष्ट निवारो |
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || १ ||
ॐ
बालि की त्रास कपीस बसैं गिरि,
जात महाप्रभु पंथ निहारो I
चौंकि महामुनि साप दियो तब ,
चाहिए कौन बिचार बिचारो || ३ ||
कैद्विज रूप लिवाय महाप्रभु,
सो तुम दास के सोक निवारो I
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || २ ||
ॐ
अंगद के संग लेन गए सिय,
खोज कपीस यह बैन उचारो I
जीवत ना बचिहौ हम सो जु ,
बिना सुधि लाये इहाँ पगु धारो I
हेरी थके तट सिन्धु सबे तब ,
लाए सिया-सुधि प्राण उबारो I
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || ३ ||
ॐ
रावण त्रास दई सिय को सब ,
राक्षसी सों कही सोक निवारो I
ताहि समय हनुमान महाप्रभु ,
जाए महा रजनीचर मरो I
चाहत सीय असोक सों आगि सु ,
दै प्रभुमुद्रिका सोक निवारो I
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || ४ ||
ॐ
बान लाग्यो उर लछिमन के तब ,
प्राण तजे सूत रावन मारो I
लै गृह बैद्य सुषेन समेत ,
तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो I
आनि सजीवन हाथ दिए तब ,
लछिमन के तुम प्रान उबारो I
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || ५ ||
ॐ
रावन जुध अजान कियो तब ,
नाग कि फाँस सबै सिर डारो I
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल ,
मोह भयो यह संकट भारो I
आनि खगेस तबै हनुमान जु ,
बंधन काटि सुत्रास निवारो I
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || ६ ||
ॐ
बंधू समेत जबै अहिरावन,
लै रघुनाथ पताल सिधारो I
देबिन्हीं पूजि भलि विधि सों बलि ,
देउ सबै मिलि मन्त्र विचारो I
जाये सहाए भयो तब ही ,
अहिरावन सैन्य समेत संहारो I
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || ७ ||
ॐ
काज किये बड़ देवन के तुम ,
बीर महाप्रभु देखि बिचारो I
कौन सो संकट मोर गरीब को ,
जो तुमसे नहिं जात है टारो I
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु ,
जो कछु संकट होए हमारो I
को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो || ८ ||
|| दोहा ||
लाल देह लाली लसे , अरु धरि लाल लंगूर I
वज्र देह दानव दलन , जय जय जय कपि सूर II
जयति जय जय बजरंग बाला, कृपा कर सालासर बाला
चैत सुदी पूनम को जन्मे, अंजनी पवन ख़ुशी मन में
प्रकट भये सुर वानर तन में, विदित यस विक्रम त्रिभुवन में || १ ||
दूध पीवत स्तन मात के, नज़र गई नभ ओर
तब जननी की गोद से पहुंचे, उदयाचल पर भोर || २ ||
अरुण फल लखी रवि मुख डाला
कृपा कर सालासर बाला || ३ ||
तिमिर भूमंडल में छाई, चिबुक पर इन्द्र ब्रज बाए
तभी से हनुमत कहलाए, द्वय हनुमान नाम पाए || ४ ||
उस अवसर में रुक गयो, पवन सर्व उन्चास
इधर हो गयो अन्धकार, उत रुक्यो विश्व को श्वास || ५ ||
भये ब्रम्हादिक बेहाला कृपा कर सालासर बाला
जयति जय जय बजरंग बाला, कृपा कर सालासर बाला || ६ ||
सालासर हनुमान आरती की महिमा
“सालासर श्री हनुमान आरती” हनुमान भक्तों के बीच बहुत महत्त्व रखती है। यह राजस्थान, भारत में सालासर बालाजी मंदिर में प्रसन्न हनुमान को समर्पित एक भक्तिपूर्ण गाना है।
सालासर श्री हनुमान आरती पूजा का एक रूप है, हनुमान की स्तुति में गाई जाती है, खासकर उन्हें आरती संग्रहण करते समय। इसे गहरे भक्ति और उत्साह के साथ गाया जाता है, हनुमान की कृपा को आमंत्रित करते हुए और उनकी सुरक्षा और मार्गदर्शन की मांग करते हुए।
सालासर श्री हनुमान आरती का महत्त्व है कि यह भक्तों को शांति, शक्ति और साहस देती है। इसे भक्तिपूर्ण भाव से पढ़ा जाता है, अक्सर सालासर बालाजी मंदिर में दैनिक अनुष्ठानों का हिस्सा बनाया जाता है और हनुमान के भक्तों के बीच कई घरों में।
भक्त मानते हैं कि इस आरती को गाने से वे भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त करते हैं, जो उन्हें बाधाओं से निकलने, कठिन समयों में आराम प्राप्त करने और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने में सहायता करती है। सालासर श्री हनुमान आरती दिव्य से जुड़ने और हनुमान से संबंधित धार्मिक आशीर्वाद प्राप्त करने का एक शक्तिशाली तरीका है।
भीमरूपी महारुद्रा वज्र हनुमान मारुती ।
वनारी अन्जनीसूता रामदूता प्रभंजना ॥१॥
महाबळी प्राणदाता सकळां उठवी बळें ।
सौख्यकारी दुःखहारी दूत वैष्णव गायका ॥२॥
दीननाथा हरीरूपा सुंदरा जगदंतरा ।
पातालदेवताहंता भव्यसिंदूरलेपना ॥३॥
लोकनाथा जगन्नाथा प्राणनाथा पुरातना ।
पुण्यवंता पुण्यशीला पावना परितोषका ॥४॥
ध्वजांगें उचली बाहो आवेशें लोटला पुढें ।
काळाग्नि काळरुद्राग्नि देखतां कांपती भयें ॥५॥
ब्रह्मांडें माइलीं नेणों आंवाळे दंतपंगती ।
नेत्राग्नी चालिल्या ज्वाळा भ्रुकुटी ताठिल्या बळें ॥६॥
पुच्छ तें मुरडिलें माथां किरीटी कुंडलें बरीं ।
सुवर्ण कटि कांसोटी घंटा किंकिणि नागरा ॥७॥
ठकारे पर्वता ऐसा नेटका सडपातळू ।
चपळांग पाहतां मोठें महाविद्युल्लतेपरी ॥८॥
कोटिच्या कोटि उड्डाणें झेंपावे उत्तरेकडे ।
मंदाद्रीसारखा द्रोणू क्रोधें उत्पाटिला बळें ॥९॥
आणिला मागुतीं नेला आला गेला मनोगती ।
मनासी टाकिलें मागें गतीसी तूळणा नसे ॥१०॥
अणूपासोनि ब्रह्मांडाएवढा होत जातसे ।
तयासी तुळणा कोठें मेरु- मांदार धाकुटे ॥११॥
ब्रह्मांडाभोंवते वेढे वज्रपुच्छें करूं शके ।
तयासी तुळणा कैंची ब्रह्मांडीं पाहतां नसे ॥१२॥
आरक्त देखिले डोळां ग्रासिलें सूर्यमंडळा ।
वाढतां वाढतां वाढे भेदिलें शून्यमंडळा ॥१३॥
धनधान्य पशुवृद्धि पुत्रपौत्र समग्रही ।
पावती रूपविद्यादि स्तोत्रपाठें करूनियां ॥१४॥
भूतप्रेतसमंधादि रोगव्याधि समस्तही ।
नासती तुटती चिंता आनंदे भीमदर्शनें ॥१५॥
हे धरा पंधराश्लोकी लाभली शोभली बरी ।
दृढदेहो निःसंदेहो संख्या चंद्रकला गुणें ॥१६॥
रामदासीं अग्रगण्यू कपिकुळासि मंडणू ।
रामरूपी अन्तरात्मा दर्शने दोष नासती ॥१७॥
॥इति श्री रामदासकृतं संकटनिरसनं नाम ॥
॥ श्री मारुति स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥
हनुमान बाहुक
“मारुती स्तोत्र” हिंदू धर्म में बहुत महत्त्व रखता है। यह एक प्रार्थना है जो भगवान हनुमान को समर्पित है, जो उनकी शक्ति, भक्ति और भगवान राम के प्रति निष्ठा के लिए प्रसिद्ध हैं। यह प्रार्थना संस्कृत में है और हनुमान की कृपा, संरक्षा और शक्ति की मांग करने के लिए चंदनी की जाती है।
मारुती स्तोत्र हनुमान की प्रशंसा करता है और उसके विभिन्न गुणों का वर्णन करता है, जैसे कि उसकी अत्यधिक शक्ति, बुद्धिमत्ता और साहस। भक्त बाधाओं को दूर करने, साहस प्राप्त करने और अपने प्रयासों में मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए इसे जपा करते हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि मारुती स्तोत्र को नियमित रूप से उच्चारण करने से मन की शांति मिलती है, डर दूर होता है और जीवन में सफलता के लिए आशीर्वाद मिलता है।
मारुती स्तोत्र प्रार्थना नकारात्मकता और बुरी प्रभावों को दूर करने के लिए मानी जाती है। इसे कठिन समयों में या किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य की शुरुआत से पहले हनुमान की दिव्य सहायता को आमंत्रित करने के रूप में जपा जाता है।
मारुती स्तोत्र हनुमान के भक्तों के बीच बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है, और इसका उच्चारण धार्मिक शक्ति और संरक्षा लाने के रूप में समझा जाता है।
दोहा
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि |
बरनऊँ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ||
“श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला हे।”
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार |
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार ||
“हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूँ। आप तो जानते ही हैं, कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सद्बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुःखों व दोषों का नाश कर दीजिए।”
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर,
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥1॥
“श्री हनुमान जी!आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों, स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।”
राम दूत अतुलित बलधामा,
अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥
“हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नहीं है।”
महावीर विक्रम बजरंगी,
कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥
“हे महावीर बजरंग बली!आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है, और अच्छी बुद्धि वालो के साथी, सहायक है।”
कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥
“आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।”
हाथ ब्रज और ध्वजा विराजे,
काँधे मूँज जनेऊ साजै॥5॥
“आपके हाथ में बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।”
शंकर सुवन केसरी नंदन,
तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥
“हे शंकर के अवतार!हे केसरी नंदन आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है।”
विद्यावान गुणी अति चातुर,
राम काज करिबे को आतुर॥7॥
“आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम काज करने के लिए आतुर रहते है।”
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया,
राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
“आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है।श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय में बसे रहते है।”
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥
“आपने अपना बहुत छोटा रूप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।”
भीम रूप धरि असुर संहारे,
रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥
“आपने विकराल रूप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उद्देश्यों को सफल कराया।”
लाय सजीवन लखन जियाये,
श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥
“आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।”
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥
“श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा की तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।”
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं,
अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥13॥
“श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।”
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,
नारद, सारद सहित अहीसा॥14॥
“श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।”
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते,
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥15॥
“यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।”
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा,
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥
“आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया , जिसके कारण वे राजा बने।”
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना,
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥17॥
“आपके उपदेश का विभीषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।”
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥
“जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है की उस पर पहुँचने के लिए हजार युग लगे।दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया।”
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि,
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥
“आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुँह में रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।”
दुर्गम काज जगत के जेते,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥
“संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।”
राम दुआरे तुम रखवारे,
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥21॥
“श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है, जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिलता अर्थात आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।”
सब सुख लहै तुम्हारी सरना,
तुम रक्षक काहू को डरना ॥22॥
“जो भी आपकी शरण में आते है, उस सभी को आन्नद प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नहीं रहता।”
आपन तेज सम्हारो आपै,
तीनों लोक हाँक ते काँपै॥23॥
“आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक काँप जाते है।”
भूत पिशाच निकट नहिं आवै,
महावीर जब नाम सुनावै॥24॥
“जहाँ महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहाँ भूत, पिशाच पास भी नहीं फटक सकते।”
नासै रोग हरै सब पीरा,
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥
“वीर हनुमान जी!आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है, और सब पीड़ा मिट जाती है।”
संकट तें हनुमान छुड़ावै,
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥
“हे हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में, जिनका ध्यान आपमें रहता है, उनको सब संकटों से आप छुड़ाते है।”
सब पर राम तपस्वी राजा,
तिनके काज सकल तुम साजा॥27॥
“तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया।”
और मनोरथ जो कोइ लावै,
सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥
“जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करे तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।”
चारों जुग परताप तुम्हारा,
है परसिद्ध जगत उजियारा॥ 29॥
“चारों युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में आपका यश फैला हुआ है, जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।”
साधु सन्त के तुम रखवारे,
असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥
“हे श्री राम के दुलारे ! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।”
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,
अस बर दीन जानकी माता॥31॥
“आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।”
राम रसायन तुम्हरे पासा,
सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥
“आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।”
तुम्हरे भजन राम को पावै,
जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥
“आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है, और जन्म जन्मांतर के दुःख दूर होते है।”
अन्त काल रघुबर पुर जाई,
जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई॥ 34॥
“अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलायेंगे।”
और देवता चित न धरई,
हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥
“हे हनुमान जी!आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।”
संकट कटै मिटै सब पीरा,
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥
“हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।”
जय जय जय हनुमान गोसाईं,
कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥
“हे स्वामी हनुमान जी!आपकी जय हो, जय हो, जय हो!आप मुझपर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।”
जो सत बार पाठ कर कोई,
छुटहि बँदि महा सुख होई॥38॥
“जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छुट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा।”
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा,
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥ 39॥
“भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।”
तुलसीदास सदा हरि चेरा,
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥40॥
“हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है।इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए।”
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभुप॥
“हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनन्द मंगलो के स्वरूप है। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।”
सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।
गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल-संकट-विकट ॥१॥
स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।
उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन ॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥
पञ्चमुख-छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो ।
बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो ।
दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३॥
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन, अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन, क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।
बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४॥
भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।
नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥
गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।
द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥
संकट समाज असमंजस भो राम राज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह, लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥
कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो, महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥
कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥
दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू, अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥
दवन दुवन दल भुवन बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।
पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु, सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥
लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास। नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥
महाबल सीम महा भीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन, करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥
दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥
रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर, मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो ॥
खल दुःख दोषिबे को, जन परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो ।
आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥
करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ, महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम, लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥
मन को अगम तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।
देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।
बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ॥१५॥
जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो ।
दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥
तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले ।
तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।
बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥
सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे ।
तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे ॥
तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।
बानरबाज ! बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे ॥१८॥
अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो ।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुञ्जर केहरि वारो ॥
राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो ।
पाप ते साप ते ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो ॥१९॥
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन, मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये ।
सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥ २० ॥
बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो विचारिये ॥
बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये ।
केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर, बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये ॥ २१ ॥
उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो संबारिये ।
राम के गुलामनि को काम तरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ॥
साहेब समर्थ तो सों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये ॥ २२ ॥
राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।
मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे, जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥
कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये ।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥ २३ ॥
लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।
कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये ।
बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु बेलि, उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥ २४ ॥
करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी ।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥
आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी ।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसी की, बाँह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥ २५ ॥
भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥
पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥ २६ ॥
सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।
लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार, जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है ॥
तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महतारी है ।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥ २७ ॥
तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की ।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब, तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की ॥
साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥ २८ ॥
टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है ।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ॥
इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु, कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि कोसो है ॥ २९ ॥
आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥ ३० ॥
दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को ॥
एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥ ३१ ॥
देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग, राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं ॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥ ३२ ॥
तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर घर के ।
तेरे बल राम राज किये सब सुर काज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के ।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ॥ ३३ ॥
पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये ॥
अँबु तू हौं अँबु चूर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ॥ ३४ ॥
घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ॥ ३५ ॥
राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥३६॥
काल की करालता करम कठिनाई कीधौ, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ॥ ३७ ॥
पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर, जर जर सकल पीर मई है ।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ॥
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥ ३८ ॥
बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि, मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है ।
राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ, जिनके समूह साके जागत जहान है ।
तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाई बानवान है ॥ ३९ ॥
बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं ।
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ॥
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥ ४० ॥
असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ॥ ४१ ॥
जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को ।
तुलसी के दोहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँऊ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥
मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ॥ ४२ ॥
सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ॥
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै ।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ॥ ४३ ॥
कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ॥
माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये ।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं, हौं हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये ॥ ४४ ॥
आरती कीजै हनुमान लला की।
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की || १ ||
जाके बल से गिरिवर कांपे |
रोग दोष जाके निकट न झांके || २ ||
अंजनि पुत्र महाबल दाई।
सन्तन के प्रभु सदा सहाई || ३ ||
दे बीरा रघुनाथ पठाए।
लंका जारि सिया सुधि लाए || ४ ||
लंका सो कोट समुद्र-सी खाई।
जात पवनसुत बार न लाई || ५ ||
लंका जारि असुर संहारे।
सियारामजी के काज सवारे || ६ ||
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे।
आनि संजीवन प्राण उबारे || ७ ||
पैठि पाताल तो रिजम-कारे।
अहिरावण की भुजा उखारे || ८ ||
बाएं भुजा असुर दल मारे।
दाहिने भुजा संतजन तारे || ९ ||
सुर नर मुनि आरती उतारें।
जय जय जय हनुमान उचारें || १० ||
कंचन थार कपूर लौ छाई।
आरती करत अंजना माई || ११ ||
जो हनुमानजी की आरती गावे।
बसि बैकुण्ठ परम पद पावे || १२ ||
Shri Hanuman Aarti holds an important place in Hinduism. This Himalaya is a devotional hymn dedicated to Lord Hanuman, the symbol of devotion, power and loyalty. Aarti is a form of worship in Hindu religious rituals, in which burning candles are waved in front of the statue.
Hanuman Aarti is known as “आरती कीज़ी हैनुमा लाला की” which is usually displayed in temples in the evening or on special occasions like Hanuman Jayanti. Its purpose is to praise Hanumanji and seek his blessings.
The words of the Aarti express the glory, qualities and deeds of Lord Hanuman. It praises his undying devotion to Lord Ram and his selfless service during the Ramayana.
Devotees believe that Hanuman Aarti helps remove roadblocks, provides courage and inspiration, and bestows blessings for success in endeavours. It is a way of surrendering to Lord Hanuman, which is believed to provide protection from evil and calamities.
The melodious sound of Aarti creates a spiritual atmosphere among the devotees, which gives them peace and stability of mind, and creates a deep connection with God. This is not just a custom, but a heartfelt expression of devotion and gratitude to Lord Hanuman.
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|| दोहा ||
| श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि |
|| बरनऊँ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ||
“श्री सदगुरु के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ-पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल सुयश का वर्णन करता हूँ, जो चारों शुभ-फल धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रदान करने वाला है।”
| बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार |
|| बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार ||
“हे पवन कुमार हनुमान जी! मैं आपको सुमिरन करता हूँ। आप तो जानते ही हैं, कि मेरा शरीर और बुद्धि दोनों निर्बल है। मुझे शारीरिक शक्ति-बल, सद्बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुःखों व दोषों का सर्वनाश कर दीजिए।”
चौपाई
| जय हनुमान ज्ञान गुण सागर |
|| जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥ १ ॥
“श्री हनुमान जी ! आपकी जय जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह ही है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! आपकी तीनों लोकों, स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में कीर्ति है।”
| राम दूत अतुलित बलधामा |
|| अंजनी पुत्र पवन सुत नामा ॥ २ ॥
“हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा कोई और बलवान नहीं है।”
| महावीर विक्रम बजरंगी |
|| कुमति निवार सुमति के संगी ॥ ३ ॥
“हे महावीर बजरंग बली जी!आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर कर देते है, और अच्छी बुद्धि वालो के साथी एवं सहायक है।”
| कंचन बरन बिराज सुबेसा |
|| कानन कुण्डल कुंचित केसा ॥ ४ ॥
“आप तो सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में सुन्दर कुण्डल और घुंघराले बालों से सज्जित-सुशोभित हैं।”
| हाथ बज्र और ध्वजा विराजे |
|| काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥ ५ ॥
“आपके हाथ में शक्तिशाली बज्र और ध्वजा है और आपके कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।”
| शंकर सुवन केसरी नंदन |
|| तेज प्रताप महा जग वंदन॥ ६ ॥
“हे शंकर जी के अवतार! हे श्री केसरी नंदन आपके पराक्रम और महान यश की पूरे संसार भर में अर्चना होती है।”
| विद्यावान गुणी अति चातुर |
|| राम काज करिबे को आतुर॥ ७ ॥
“आप प्रकान्ड विद्या के निधान है, गुणवान हैं और अत्यन्त कार्य में कुशल होकर श्री राम जी काज करने के लिए सदेव ही आतुर रहते है।”
| प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया |
|| राम लखन सीता मन बसिया॥ ८ ॥
“आप को श्री राम चरित मानस को सुनने में आनन्द रस मिलता है।श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय में विद्यमान रहते है।”
| सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा |
|| बिकट रूप धरि लंक जरावा॥ ९ ॥
“आपने अपना बहुत छोटा रूप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।”
| भीम रूप धरि असुर संहारे |
|| रामचन्द्र के काज संवारे॥ १० ॥
“आपने विकराल रूप को धारण करके राक्षसों को संहारा है और श्री रामचन्द्र जी के उद्देश्यों एवं कार्यों को सफल भी कराया।”
| लाय सजीवन लखन जियाये |
|| श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥ ११ ॥
“आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।”
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥ १२ ॥
“श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की है और कहा है कि तुम मेरे सगे भरत जैसे ही प्यारे भाई हो।”
| सहस बदन तुम्हरो जस गावैं |
|| अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥ १३ ॥
“श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से आलिंगन कर लिया की तुम्हारा सुयश हजार मुख से ही सराहनीय अनुकर्णीय है।”
| सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा |
|| नारद, सारद सहित अहीसा॥ १४ ॥
“श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन एवं श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी भी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब मिलके आपका यशो-गुण गान करते है।”
| जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते |
|| कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥ १५ ॥
“यमराज, कुबेर जी आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके सुयश का पूर्णतः भली भांति वर्णन नहीं कर सकते हैं।”
| तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा |
|| राम मिलाय राजपद दीन्हा॥ १६ ॥
“आपने महाराज सुग्रीव जी को श्रीराम जी से मिलाकर उपकार किया है, जिसके कारण वे राजा बन पाए।”
| तुम्हरो मंत्र विभीषण माना |
|| लंकेस्वर भए सब जग जाना॥ १७ ॥
“आपके उपदेश का विभीषण जी ने भली भांति पालन किया जिससे वे लंका के महाराजा बने, इस बात को सब संसार जानता है।”
| जुग सहस्त्र जोजन पर भानू |
|| लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥ १८॥
“जो सूर्य भगवान् इतने योजन दूरी पर स्थित है कि उन पर पहुँचने के लिए हजार युग लग जाएँ।दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य नारायण को आपने एक सुन्दर मीठा फल समझकर निगल लिया था।”
| प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि |
|| जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥ १९ ॥
“आपने श्री भगवान रामचन्द्र जी की अंगूठी को मुँह में रखकर समुद्र को लांघ लिया था, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।”
| दुर्गम काज जगत के जेते |
|| सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥ २० ॥
“संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम होते हैं , वो आपकी कृपा से सहज ही सुलभ हो जाते है।”
| राम दुआरे तुम रखवारे |
|| होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥ २१ ॥
“श्री रामचन्द्र जी के महल द्वार के आप ही रखवाले है, जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिल सकता है, अर्थात आपकी प्रसन्नता के बिना श्री राम कृपा दुर्लभ ही है।”
| सब सुख लहै तुम्हारी सरना |
|| तुम रक्षक काहू को डरना ॥ २२ ॥
“जो भी आपकी शरण में चलके आते है, उस सभी को आनन्द ही प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक हों, तो फिर किसी का डर नहीं रहता है।”
| आपन तेज सम्हारो आपै |
|| तीनों लोक हाँक ते काँपै॥ २३ ॥
“आपके सिवाय आपके वेग-तेज़ को कोई नहीं रोक सकता है, आपकी गर्जना से तीनों लोक तक काँप जाते है।”
| भूत पिशाच निकट नहिं आवै |
|| महावीर जब नाम सुनावै॥ २४ ॥
“जहाँ महावीर पवनसुत श्हरी नुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहाँ भूत-पिशाच आस-पास भी नहीं फटक सकते हैं।”
|| नासै रोग हरै सब पीरा |
|| जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥ २५ ॥
“वीर हनुमान जी!आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है, और सब पीड़ा मिट जाती है।”
| संकट तें हनुमान छुड़ावै |
|| मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥ २६ ॥
“हे वीर हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने और बोलने में, जिनका भी ध्यान आपमें रहता है, उनको सभी संकटों से आप छुड़ाते है।”
| सब पर राम तपस्वी राजा |
|| तिनके काज सकल तुम साजा॥ २७ ॥
“तपस्वी राजा भगवान् श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यों को आपने ही आसानी से सहज में कर दिया।”
| और मनोरथ जो कोइ लावै |
|| सोई अमित जीवन फल पावै॥ २८ ॥
“जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करे तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।”
| चारों जुग परताप तुम्हारा |
|| है परसिद्ध जगत उजियारा॥ २९ ॥
“चारों युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर तथा कलियुग में आपका यश फैला हुआ है, जगत में आपकी ही कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।”
| साधु सन्त के तुम रखवारे |
|| असुर निकंदन राम दुलारे॥ ३० ॥
“हे श्री राम के दुलारे ! आप सज्जनों की रक्षा करते है और सभी दुष्टों का नाश करते है।”
| अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता |
|| अस बर दीन जानकी माता॥ ३१ ॥
“आपको माता श्री जानकी जी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां प्रदान कर सकते है।”
| राम रसायन तुम्हरे पासा |
|| सदा रहो रघुपति के दासा॥ ३२ ॥
“आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में ही रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के सर्नावश के लिए राम नाम औषधि है।”
| तुम्हरे भजन राम को पावै |
|| जनम जनम के दुख बिसरावै॥ ३३ ॥
“आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है, और जन्म जन्मांतर के दुःख दूर होते है।”
अन्त काल रघुबर पुर जाई,
जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई॥ ३४ ॥
“अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलायेंगे।”
| और देवता चित न धरई |
|| हनुमत सेई सर्व सुख करई॥ ३५ ॥
“हे हनुमान जी!आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।”
| संकट कटै मिटै सब पीरा |
|| जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥ ३६ ॥
“हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।”
| जय जय जय हनुमान गोसाईं |
|| कृपा करहु गुरु देव की नाई॥ ३७ ॥
“हे स्वामी हनुमान जी!आपकी जय हो, जय हो, जय हो!आप मुझपर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।”
| जो सत बार पाठ कर कोई |
|| छुटहि बँदि महा सुख होई॥ ३८ ॥
“जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छुट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा।”
| जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा |
|| होय सिद्धि साखी गौरीसा॥ ३९ ॥
“भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।”
| तुलसीदास सदा हरि चेरा |
|| कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥ ४० ॥
“हे नाथ हनुमान जी | तुलसीदास जी सदा ही श्री रामचन्द्र के दास है।इसलिए आप उनके हृदय में निवास करें।”
| पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
|| राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभुप॥
“हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनन्द मंगलो के स्वरूप है। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।”